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    वेदांत दर्शन किसे कहते हैं इसके मूल सिद्धांत क्या है ?

    Darshan

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    वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों के गूढ़ एवं विस्तृत चितन का अंतिम सार ही वेदांत दर्शन है। वादरायण व्यास (चौथी शताब्दी) पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इन समस्त ग्रंथों के सार तत्व को सूत्र रूप में प्रस्तुत किया। उनके द्वारा विरचित ग्रंथ का नाम ‘ब्रह्म सूत्र’ है। यही ग्रंथ वेदांत दर्शन का आदि ग्रंथ है। वादरायण के कई सौ नोट वर्ष बाद अनेक विद्वानों ने अनके ब्रह्म सूत्र पर भाष्य ग्रंथ लिखे और अपनी-अपनी दृष्टि से ब्रह्म सूत्र में प्रतिपादित वेदांत की व्याख्या की। इन व्याख्याओं से वेदांत की अनेक शाखा उपशाखाओं का विकास हुआ। 

     
    इनमें शंकर (9वीं शताब्दी) का अद्वैत, रामानुजाचार्य (12वीं शताब्दी) का विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य (13वीं शताब्दी) का द्वैत, निम्बार्वफ )13वीं शताब्दीद्ध का द्वैत, श्रीकंठ (13वीं शताब्दी) का शैव विशिष्टाद्वैत, श्रीपति (14वीं शताब्दी) का वीर शैव विशिष्टाद्वैत और बल्लभाचार्य (16वीं शताब्दी) का शुद्वैत मुख्य हैं। इनमें शंकर का अद्वैत वेदांत तो पूर्ण रूपेण वेद एवं उपनिषद् मूलक है, परंतु शेष सभी दर्शनों की तत्व मीमांसा तो वेद एवं उपनिषदों पर आधारित है लेकिन उनकी उपासना की प(तियाँ वैष्णव, शैव एवं शाक्त आगमों पर आधारित हैं। 
     
    वैष्णव, शैव और शाक्त आगमों पर आधारित होने के कारण ही उन्हें क्रमशः वैष्णव, शैव और शाक्त दर्शनों के रूप में जाना जाता है। इनमें शंकर का अद्वैत और रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत, वेदांत के दो सीमांत दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।

    शंकर का अद्वैत वेदांत भारतीय चितन धारा का चरमोत्कर्ष है। आज भारत में जितने भी दर्शन एवं धर्म मानव जीवन में उतरे हुए हैं उन पर वेदांत का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य है। भारतेतर दर्शन एवं धर्मों से भी यह बड़ा मेल खाता है। इसका ब्रह्म यहूदी धर्म के जेहोवा, पारसी धर्म के आहुरमज्द, ईसाई धर्म के गौड और इस्लाम धर्म के अल्लाह के समान निर्गुण एवं सर्वशक्तिमान है। अंतर केवल इतना है कि जेहोवा, आहुरमज्द, गौड और अल्लाह इस ब्रह्मांड के कर्ता मात्रा हैं, जबकि वेदांत का ब्रह्म इसका कर्ता एवं उपादान, दोनों कारण है। जगत के कर्ता के रूप में ब्रह्म को सगुण रूप देकर उसे ईश्वर की संज्ञा से विभूषित कर शंकर ने ईश्वर भक्त लोगों के हृदय को भी स्पर्श किया है। वैसे भी भक्ति भाव तो शंकर को अपने माता-पिता से विरासत के रूप में प्राप्त हुआ था। उनके द्वारा विरचित ग्रंथ ‘सौंदर्य लहरी’ में उनकी भक्ति भावना ही प्रस्पुफटित हुई है। 
     
    रामानुजाचार्य ने तो ईश्वर को सगुण रूप में ही स्वीकार किया है और उसकी प्राप्ति के लिए भक्ति को सर्वश्रेष्ठ साधन माना है। किसी भी दार्शनिक ¯चतनधारा को समझने के लिए उसकी तत्व मीमांसा ज्ञान एवं तर्क  मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को समझना आवश्यक होता है, अतः हम सर्वप्रथम वेदान्त दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को ही समझने का प्रयत्न करेंगे।
     

    वेदांत दर्शन की तत्व मीमांसा

    शंकर ने इस ब्रह्मांड के मूल में केवल ब्रह्म की सत्ता स्वीकार की है। उनकी दृष्टि से ब्रह्म ही अंतिम सत्य है। उनका यह ब्रह्म अनादि, अनंत और निराकार है। यही ब्रह्म इस ब्रह्मांड का कर्ता और उपादान कारण है। यही शंकर का अद्वैत है। शंकर के अनुसार सर्वप्रथम ब्रह्म अपनी इच्छा से अपने अंदर माया शक्ति का निर्माण करता है और पिफर इस माया शक्ति के द्वारा इस नाना वस्तु जगत का निर्माण करता है। शंकर के अनुसार माया ब्रह्म की बीज शक्ति है, यह न तो सत् है और न असत्। शंकर ने इसे अनिर्वचनीय कहा है। शंकर के अनुसार जगत के कर्ता के रूप में यह ब्रह्म साकार ब्रह्म अथवा ईश्वर के नाम से विभूषित होता है। 
     
    आत्मा को शंकर ब्रह्म का अंश मानते हैं और चूँकि ब्रह्म अपने में अनादि, अनंत, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञाता है इसलिए शंकर की सम्मति में आत्मा भी अपने में अनादि, अनंत, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञाता है। जीव के विषय में शंकर का मत है कि शरीर तथा इंद्रिय समूह के अध्यक्ष और कर्मफल का भोक्ता आत्मा ही जीव है। यही जीव सूक्ष्म शरीर के साथ एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है।

    नोट जगत को शंकर नाशवान एवं असत्य मानते हैं। उनकी दृष्टि से इस जगत एवं उसमें मानव जीवन की केवल व्यावहारिक सत्ता है। पदार्थ की अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है, पदार्थ तो विचार शक्ति के तेजी से चक्कर काटने से उत्पन्न भँवरजाल है। जिस प्रकार पानी में भँवर का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार पदार्थों का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। शंकर का यह मत भारतीय प्रत्ययवाद और प्लेटो के विचारवाद से बड़ा मेल खाता है।

    मनुष्य को शंकर ने अनंत ज्ञान एवं शक्ति का ड्डोत माना है। उनका स्पष्टीकरण है कि मनुष्य आत्मघाती है और आत्मा सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है, इसलिए मनुष्य अपने में अनंत ज्ञान एवं शक्ति का ड्डोत है। उनका आगे स्पष्टीकरण है कि माया के आवरण के कारण वह अपने इस वास्तविक स्वरूप को भूले रहता है, जैसे ही माया का आवरण हटता है, वह अपने वास्तविक स्वरूप को समझ जाता है।

    शंकर कर्म सिद्धांत  को मानते थे। उन्होंने मनुष्य के कर्मों को तीन वर्गों में विभाजित किया है-संचित कर्म (पूर्व जन्म में किए गए कर्म), प्रारब्ध कर्म (पूर्व जन्म में किए गए वे कर्म जिनका फल इस जीवन में भोगना है) और-संचीयमान कर्म (वे कर्म जो इस जीवन में किए जा रहे हैं)। शंकर के अनुसार मनुष्य को प्रारब्ध कर्म अवश्य भोगने पड़ते हैं, वह उनको भोगे बिना कर्म शून्य नहीं हो सकता, मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। हाँ, वह अपने संचित कर्मों और संचीयमान कर्मों के फल को ब्रह्म ज्ञान द्वारा शून्य कर सकता है। शंकर के अनुसार मनुष्य अपने प्रारब्ध कर्मों का पफल भोगकर और संचित एवं संचीयमान कर्मों के फल को ब्रह्म ज्ञान द्वारा शून्य करने के बाद ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

    शंकर के विपरीत रामानुजाचार्य ने ब्रह्म और ईश्वर को एक ही रूप में लिया है। शंकर के अनुसार ‘तत्वमसि’ का अर्थ है-तुम (आत्मा) ब्रह्म हो। रामानुजाचार्य के अनुसार ‘तत्वमसि’ का अर्थ है-ब्रह्म तथा ईश्वर एक है। शंकर ने केवल ब्रह्म को मूल तत्व माना है, रामानुजाचार्य ने तीन मूल तत्व माने हैं-चित् (चेतन, आत्मा), अचित् (अचेतन, जड़) और ब्रह्म (ईश्वर)। इनकी दृष्टि से ईश्वर में चित् और अचित् दोनों तत्व विद्यमान हैं, सृष्टि के नष्ट होने पर उसके चित् और अचित् तत्व सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं। ईश्वर विशिष्ट ही शेष रह जाता है। ईश्वर के चित्-अचित् से विशिष्ट होने के कारण ही उनके दर्शन को विशिष्टाद्वैत दर्शन कहा जाता है। वस्तु जगत के विषय में भी रामानुजाचार्य का मत शंकर से अलग है। शंकर ने इस जगत की केवल व्यावहारिक सत्ता मानी है, जबकि रामानुजाचार्य ने इसे वास्तविक माना है। उनकी दृष्टि से ब्रह्म (ईश्वर) और उसके द्वारा निर्मित यह जगत दोनों सत्य हैं, दोनों वास्तविक हैं।

    वेदांत दर्शन की ज्ञान एवं तर्क  मीमांसा

    शंकर ने ज्ञान को दो भागों में बाँटा है-अपरा (लौकिक अथवा व्यावहारिक) तथा परा (आध्यात्मिक)। इस वस्तु जगत एवं मनुष्य जीवन के विभिन्न पक्षों के ज्ञान को उन्होंने अपरा ज्ञान कहा है। उनकी दृष्टि से इस ज्ञान की केवल व्यावहारिक उपयोगिता है, इससे मनुष्य अपने जीवन के अंतिम उद्देश्य ‘मुक्ति’ की प्राप्ति नहीं कर सकता। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद एवं गीता की तत्व मीमांसा को वे परा ज्ञान मानते थे। उनकी दृष्टि से यही सच्चा ज्ञान है, इस ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इन दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए शंकर ने श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन की विधि का समर्थन किया है, परंतु पराज्ञान के लिए वे श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन के साथ साधान चतुष्ट्य को आवश्यक मानते थे। उनकी दृष्टि से बिना साधन चतुष्ट्य (नित्य-अनित्य वस्तु विवेक, भोग विरक्ति, शमदमादि संयम और ममुक्षकत्व) के परा ज्ञान नहीं हो सकता। 
     
    रामानुजाचार्य ने ज्ञान को अन्य दो रूपों में विभाजित किया है-धर्मीभूत ज्ञान और धर्मभूत ज्ञान। धर्मीभूत ज्ञान से उनका तात्पर्य कर्तारूप ज्ञान से है और धर्मीभूत ज्ञान से तात्पर्य कर्म में विद्यमान ज्ञान से है। रामानुजाचार्य ने जगत के ज्ञान को भी उतना ही महत्त्वपूर्ण माना है जितना ब्रह्म (ईश्वर) ज्ञान को, बशर्ते जगत का ज्ञान भी आत्मोन्नति के लिए किया जाए।

    शंकर ने मनुष्य जीवन को दो रूपों में विभाजित किया है-एक अपरा (व्यावहारिक) और दूसरा परा (आध्यात्मिक)। व्यावहारिक दृष्टि से उन्होंने मनुष्यों को अपने वर्ण-कर्म को निष्ठा एवं ईमानदारी से करने की सलाह दी है। इनका विश्वास है कि जो मनुष्य अपने वर्ण-कर्म को जितनी निष्ठा एवं ईमानदारी से करेगा वह व्यावहारिक दृष्टि से उतना ही सफल होगा।

    शंकर के अनुसार मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना है। मुक्ति से शंकर का तात्पर्य सांसारिक सुख-दुःख के छुटकारे से है। मुक्ति के शंकर ने दो रूप स्वीकार किए हैं-एक जीवन मुक्ति और दूसरी विदेह मुक्ति। जीवन मुक्ति से शंकर का तात्पर्य जीवन जीते हुए कर्म फल के प्रति अनासक्त होकर, सुख-दुःख से मुक्त होने से है और विदेह मुक्ति से तात्पर्य जीवन के अंत में ब्रह्म तत्व की प्राप्ति से है जिसके बाद मनुष्य इस संसार के आवागमन से छूट जाता है और इस संसार के सुख-दुःख भोग से मुक्त हो जाता है। उनके मत से किसी भी प्रकार की मुक्ति के लिए ज्ञान मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए शंकर ने श्रवण, मनन और निदिध्यासन पर बल दिया है और इस सबके लिए साधन चतुष्टय को आवश्यक माना है। मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक को इन सबका पालन करना चाहिए।

    रामानुजाचार्य ने शंकर की भाँति मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति माना है, परंतु उन्होंने जीवनमुक्ति को मुक्ति नहीं माना। उनकी दृष्टि से ब्रह्म (ईश्वर) की प्राप्ति करके ही मनुष्य मुक्त हो सकता है। और इसकी प्राप्ति के लिए उन्होंने सर्वाधिक महत्व भक्ति को दिया है।

    वेदांत दर्शन की परिभाषा

    वेदांत दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क  मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा के आधार पर हम उसको निम्नलिखित रूप में परिभाषित कर सकते हैं- वेदांत दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्मांड को ब्रह्म (ईश्वर) द्वारा निर्मित मानती है और यह मानती है कि ब्रह्म नित्य है और यह वस्तु जगत अनित्य है। यह ब्रह्म को इस सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति तथा लय का कारण मानती है और आत्मा को ब्रह्म का अंश मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है, जिसे ज्ञान योग, कर्म योग, राज योग एवं भक्ति योग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

    वेदांत दर्शन के मूल सिद्धांत 

    वेदांत दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क  मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को यदि हम सिद्धांतों के रूप में क्रमबद्ध करना चाहें तो निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं- 
     
    1. यह ब्रह्मांड ब्रह्म (ईश्वर) द्वारा निर्मित है-शंकर के अद्वैत वेदांत के अनुसार ब्रह्म मूल तत्व है और ब्रह्म से ब्रह्म के ही द्वारा इस ब्रह्मांड का निर्माण होता है और उसी के द्वारा इसमें नित्य दृश्य एवं अदृश्य परिवर्तन होते रहते हैं। जिस प्रकार मकड़ी अपने अंदर के द्रव्य पदार्थ से अपने श्रम से अपने जाल की रचना करती है ठीक उसी प्रकार ब्रह्म इस जगत का निर्माण करता है। ब्रह्म की वह शक्ति जिसके द्वारा वह ब्रह्मांड का निर्माण करता है, उसे शंकर ने माया कहा है। शंकर के अनुसार ब्रह्म अनादि, अनंत, निर्गुण और निर्वयव है, परंतु जब उसमें माया के द्वारा संसार के निर्माण का गुण आरोपित किया जाता है तो वह सगुण हो जाता है। 
     
    उपासना की दृष्टि से भी हम उसे सगुण ब्रह्म (ईश्वर) के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं, परंतु है वह निर्गुण ही। रामानुजाचार्य ने ब्रह्म और ईश्वर को एक ही रूप में लिया है। उनकी दृष्टि से ईश्वर ही इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय तीनों का कारण है। 
     
    2. ब्रह्म और जगत में ब्रह्म विशिष्ट है-शंकर का तर्क  है कि इस जगत का निर्माण होता है और नाश भी इसमें तो प्रति क्षण परिवर्तन होता रहता है, इसलिए यह अनित्य है, असत्य है। उनके अनुसार केवल ब्रह्म ही नित्य है, सत्य है। शंकर ने इस जगत की व्यावहारिक सत्ता अवश्य स्वीकार की है। इसकी व्यावहारिक सत्ता स्वीकार किए बिना तो मनुष्य के अस्तित्व और उसके द्वारा ज्ञान, कर्म, भक्ति, योग और मोक्ष प्राप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। शंकर के विपरीत रामानुजाचार्य ने ब्रह्म और जगत दोनों को सत्य माना है, परंतु यह उन्होंने भी माना है कि ब्रह्म इनमें विशिष्ट है, प्रलय के समय जगत तो सूक्ष्म रूप धारण कर लेता है परंतु ब्रह्म (ईश्वर) विशिष्ट शेष रहता है। 
     
    3. आत्मा ब्रह्म का अंश है-शंकर की दृष्टि से आत्मा ब्रह्म का अंश है। मूल रूप में इनमें भेद नहीं हैं, ब्रह्म की माया शक्ति के कारण आत्मा ब्रह्म से अलग प्रतीत होती है माया का पर्दा हटते ही आत्मा और ब्रह्म में भेद नहीं दिखाई देता। रामानुजाचार्य ने जीव (आत्मा), अजीव (प्रकृति) और ईश्वर, तीन मूल तत्व माने हैं। उनकी दृष्टि से आत्मा का अलग अस्तित्व है। 
     
    4. मनुष्य अनंत ज्ञान एवं शक्ति का ड्डोत है-शंकर का स्पष्टीकरण है कि मनुष्य आत्माधारी है और आत्मा ब्रह्म का अंश है, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है, इसलिए मनुष्य अपने में अनंत ज्ञान एवं शक्ति का ड्डोत है, परंतु माया के कारण मनुष्य अपने इस अनंत ज्ञान एवं शक्ति को पहचान नहीं पाता। जो मनुष्य अपनी आत्मा को पहचान लेता है वह सब कुछ जान जाता है और सब कुछ करने में समर्थ होता है। रामानुजाचार्य ने इसी तथ्य को दूसरे रूप में स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि से मनुष्य सत्-असत् का योग है इसलिए अनंत ज्ञान एवं शक्ति को प्राप्त कर सकता है। 
     
    5. मनुष्य का विकास उसके संचित, प्रारब्ध और संचीयमान कर्मों पर निर्भर करता है-भौतिकवादी मनुष्य के विकास का आधार उसकी कर्मेंद्रियों, ज्ञानेंद्रियों और मस्तिष्क को मानते हैं। वेदांत मनुष्य की इंद्रियों और मस्तिष्क में भिन्नता के कारण की खोज में संचित एवं प्रारब्ध कर्मों की तह तक पहुँच गया। वेदांत के अनुसार मनुष्य का विकास संचीयमान कर्म (इस जन्म में किए जाने वाले कर्म) के साथ-साथ उसके संचित कर्म (पूर्व जन्म के संचित कर्म) तथा प्रारब्ध कर्म (पूर्व जीवन के वे संचित कर्म जिनका फल इस जीवन में भोगना है) पर निर्भर करता है। तभी तो इस जीवन में दो समान मनुष्यों के एक ही परिस्थिति में समान कर्म करने पर असमान फल प्राप्ति होती है। 
     
    6. मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है-मुक्ति का शंकर ने कई रूपों में वर्णन किया है। जब मनुष्य ज्ञान के द्वारा इस संसार की असत्यता से परिचित हो इससे विरक्त हो जाता है और सांसारिक सुख-दुःख का अनुभव नहीं करता तो उसे जीवन मुक्त कहते हैं। जीवन मुक्त व्यक्ति सब प्राणियों में अपना स्वरूप देखता है, इसलिए वह भेदभाव नहीं बरतता, सत्कर्म उसके व्यक्तित्व का सहज स्वभाव बन जाता है। शंकर के अनुसार इस जीवन मुक्त से आगे की स्थिति है-आत्म-ब्रह्म में अभेद। इस स्थिति पर पहुँचने पर ही मनुष्य वास्तविक मुक्ति प्राप्त करता है। इसे शंकर ने विदेह मुक्ति कहा है।
     
    शंकर के अनुसार जीवन मुक्ति में मनुष्य को आनंद की अनुभूति होती है और विदेह मुक्ति में परमानंद की अनुभूति होती है। रामानुजाचार्य के अनुसार मुक्ति का अर्थ है-ईश्वर की प्राप्ति। 
     
    7. मुक्ति के लिए ज्ञान योग, कर्म योग व भक्ति योग आवश्यक हैं-शंकर ने अनादि एवं अनंत ब्रह्म को सत्य जानने को विद्या (ज्ञान) और मायामय संसार को सत्य जानने को अविद्या (अज्ञान) कहा है। शंकर का मत है कि जब तक हम कर्म और भक्ति के द्वारा अच्छे जीवन की आकांक्षा करते रहेंगे तब तक हमें वही प्राप्त होता रहेगा, आत्मा-ब्रह्म के अभेद को हम प्राप्त ही नहीं होंगे। इस अभेद को जानने के लिए उन्होंने ज्ञान प्राप्ति पर बल दिया है। इसका अर्थ यह नहीं कि शंकर कर्म के महत्व को स्वीकार नहीं करते थे। 
     
    8. ज्ञान के लिए श्रवण-मनन-निदिध्यासन आवश्यक है-शंकर की दृष्टि से ज्ञान दो प्रकार का होता है-अपरा (व्यावहारिक) और परा (आध्यात्मिक) और इन दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने की एक ही विधि है-श्रवण, मनन, निदिध्यासन। शंकर के अनुसार अनादि और अनंत ब्रह्म को साक्षात् करने के लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता है वह वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद और गीता के श्रवण अथवा अध्ययन, उस पर मनन और उससे प्राप्त ज्ञान का नित्य प्रयोग करने पर ही प्राप्त हो सकता है। बिना अनुभूति के, केवल तर्कों के आधार पर वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति असंभव है। रामानुजाचार्य के अनुसार ईश्वर भक्ति से ही सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, यह मुक्ति का सबसे सरल साधन है।

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